बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 12)

उन दिनों कइयों से बिल्लेसुर कह चुके, मर्द से औरत होना अच्छा।


 कोई नहीं समझा। बिल्लेसुर सूखे होठों की हार खाई हँसी हँसकर रह गये।

गाँव में भी बिल्लेसुर की बरदाश्त करने की आदत पड़ी थी। कभी कुछ बोले नहीं। 

अपनी ज़िन्दगी की किताब पढ़ते गये। किसी भी वैज्ञानिक से बढ़कर नास्तिक।

बिल्लेसुर दूसरे का अविश्वास करते करते एक खास शक्ल के बन गये थे। 

पर अपना बल न छोड़ा था, जैसे अकेले तैराक हों। सत्तीदीन की स्त्री को न मालूम होने दिया कि दूर की कौड़ी लाते हैं। 

बारह कोस की दौड़ छः कोस की रही। दुनिया को खुश करने की नस टोये पा चुके थे; दम साधे, दबाते हुए कई महीने खे गये। 

एक दिन जमादार को खुश देखकर बोले, 'बाबा; अब नौकरी लगा देते!'

उन्होंने कहा, 'अच्छा, कल नाप देना।'

बिल्लेसुर मन्नी के भाई थे, पाँच फ़ीट से कुछ ही ऊपर। जानते थे, ऊँचाई घटेगी। तरकीब निकाली। 

चमरौधा जूता था डेढ़ इंच से कुछ ज्यादा ऊँचे तले का। उसमें रुई की गद्दी लगाई। 

पहनकर खड़े हुए तो जैसे ईंटों पर खड़े हों।

 लेकिन झेंपे नहीं, न डरे, जैसे फ़र्ज़ अदा कर रहे हों, गये। कचहरी में लट्ठ लाकर लगाया गया।

 बिल्लेसुर ने आँख उठाई कि देखें, पूरे हो गये। नापनेवाले ने कहा, डेढ़ इंच घटा।

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